Jallianwala Bagh Massacre: स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर वेशेष, इतिहास की सबसे दर्दनाक कहानी जलियावाला बाग़ नरसंघार जिसमें गई थी कई मासूमों की जान
Jallianwala Bagh Massacre | जलियांवाला बाग हत्याकांड
13 अप्रैल सन् 1919 यह तारीख भारत के इतिहास का एक काला दिन था। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में हजारों मासूम और निहत्थे भारतीयों पर बड़ी ही बेरहमी के साथ गोलियां चलाकर उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया था। जिसे हम सभी जलियांवाला बाग हत्याकांड या जलियांवाला बाग नरसंहार के नाम से भी जानते हैं। देश की इस आजादी की लड़ाई में हजारों भारतीय शहीद हो गए थे, जिनमें हिंदू, मुसलमान, सिख समेत सभी धर्मों और जातियों के लोग शामिल थे।

ये बात तो हम सबने पढ़ी है कि जनरल डायर के कहने पर ही गोरखा के जवानों को जलियांवाला बाग में गोलियां चलानी पड़ी थी, लेकिन आखिर इतनी बड़ी संख्या में लोग जलिया वाले बाग में इकट्ठा क्यों हुए थे? क्यों जनरल डायर ने बेगुनाह भारतीयों पर गोलियां चलाकर बर्बरता की हदें पार कर दी थी और बाद में शहीदे आजम ऊधम सिंह ने जनरल डायर को मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला भी लिया था। लेकिन जीस व्यक्ति को ऊधमसिंह ने मारा था। असल में तो वह व्यक्ति था ही नहीं जिसने जलिया वाले बाग में गोली चलाने का आदेश दिया था तो फिर उधम सिंह ने किसे मौत के घाट उतारा था?
जलियांवाला बाग से संबंधित और भी कई ऐसे रहस्य है जिसके बारे में आज भी देश की अधिकतर जनता अनजान है। तो आज लेख में हम जलिया वाले बाग की पूरी घटना आपको बताएंगे और इससे जुड़े कई ऐसे साक्ष्य और तथ्य आपके सामने पेश करेंगे जो आपने पहले कभी नहीं सुने होंगे।
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Jallianwala Bagh Massacre घटना की शुरुआत
घटना की शुरुआत 10 अप्रैल को होती है जब रोलैट ऐक्ट का उल्लंघन करने पर सैफुद्दीन किरजू और डॉक्टर सत्यपाल को ब्रिटिश अधिकारी द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। असल में उस समय पूरे देश में रोलैट ऐक्ट का कानून पास कर दिया जाता है, जिसके तहत ब्रिटिश किसी भी भारतीय पर बिना मुकदमा चलाए उसे जेल में बंद कर सकती थी। उस कानून को इतिहास में काला कानून भी कहा जाता है, जिसका विरोध महात्मा गाँधी ने भी जमकर किया था। सैफुद्दीन और सत्यपाल की गिरफ्तारी के बाद पंजाब के लोगों में जबरदस्त आक्रोश था।
जिसके चलते इन लोगों ने मिलकर 13 अप्रैल को बैसाखी के अवसर पर जलिया वाले बाग में एक जनसभा का आयोजन करने का निर्णय किया। ये बात जब ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पता चली तो उन्होंने अतिरिक्त सैन्य टुकड़ी पहले ही बुला ली और 12 अप्रैल तक जनरल डायर की सेन्य टुकड़ी पूरी तरह से चौकन्ना हो गई। 13 अप्रैल की सुबह सभी लोग बैशाखी का जश्न मना रहे थे। गोल्डन टेम्पल के दर्शन करने के बाद हजारों की संख्या में लोग जलिया वाले बाग में इकट्ठा होने लगे। देखते ही देखते लगभग पच्चीस हजार लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई।
इतने में ही जनरल डाइअर अपने जवानों के साथ वहाँ पहुंचते हैं। जलियांवाला बाग के अंदर और बाहर जाने का सिर्फ एक ही रास्ता होता है जिसे जनरल डाइअर तोप लगाकर बंद कर देते हैं। इसके बाद बाग में घुसते ही वे सिर्फ एक ही शब्द बोलते है फाइर जनरल के आदेश मिलते ही उसके जवानों ने फायरिंग शुरू कर दी। 50 राइफल और 40 कुकरी के साथ जनरल डायर जलियांवाला बाग पहुंचा था, जिससे साफ था कि वह नरसंहार करने के उद्देश्य से ही वहाँ आया था।
बर्बरता की सारी हदें लांघ का जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में मौत का वो तांडव मचाया। की इस घटना से हर भारतीय आक्रोश और बदले की भावना से भर उठा। केवल 10 मिनट के अंदर ही जनरल के उन जवानों ने लगभग 1650 राउंड फायरिंग की। लोगों को अपनी जान बचाने का मौका तक नहीं मिला। फायरिंग शुरू होते ही चारों तरफ अफरा तफरी मच गई। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, जवान हर कोई चीख रहा था। हर कोई अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहा था, लेकिन जनरल डायर की ओर से कोई फायरिंग नहीं रुक रही थी। सिर्फ बंदूक में गोली लोड करने के दौरान ही फाइरिंग रुकती थी।
कुछ लोगों ने बाग में मौजूद कुएं में कूदकर अपनी जान बचानी चाहिए। तो वहीं कुछ लोगों ने दीवार फांदकर भाग निकलने की कोशिश की, लेकिन डायर के जवानों ने सभी को गोलियों से भून दिया।
आज भी जलिया वाले बाग के उन दीवारों पर गोलियों के निशान हैं, जिस कुएं में लोग जान बचाने के लिए कूदे थे। उससे 120 लाशें बरामद की गई थी। वह कुआं इतने लोगों की लाशों से निकलते खून से पूरी तरह लाल हो गया था, जिसे आज खूनी कुआं के नाम से जाना जाता है। खूबसूरत बाग में हर जगह सिर्फ खून के धब्बे नजर आ रहे थे। 10 मिनट फायरिंग के बाद जनरल डायर हंसता हुआ वहाँ से बाहर निकला। अमृतसर की सड़कों पर जो भी भारतीय उसे नजर आया, उस पर भी गोलियां चलाकर उसने मार डाला और अपनी तोप के पीछे रस्सी बांधकर उसे घसीटकर ले गया।
ब्रिटिश सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इस नरसंहार में 379 लोगों की मौत हुई थी, लेकिन वास्विक आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है। हजारों निर्दोस भारतीय इस हत्याकांड में शहीद हो गए थे। इस घटना के बाद सब जगह इस घटना की निंदा की जाने लगी।
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Jallianwala Bagh Massacre जनरल डायर का क्या हुआ
घटना की जांच सबसे पहले लेफ्टिनेंट माइकल और लेफ्टिनेंट डायर द्वारा की गई। जनरल डायर ने अपनी सफाई में कहा कि अगर वह गोलियां नहीं चलाता तो वहाँ मौजूद लोग उस पर हमला कर देते जो मार्शल लॉ का उल्लंघन होता। उसने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए ही गोली चलाने का आदेश दिया था।
लेफ्टिनेंट डायर, जनरल डायर के जवाब से संतुष्ट थे। ध्यान रखिए यहाँ पर दोनों डायर अलग अलग हैं। इसके बाद लाहौर में हंटर कमिशन को जांच के आदेश दिए गए। अंतिम रिपोर्ट में जनरल डायर का फैसला सही बताते हुए उसे ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रमोशन दिया। लेकिन साथ ही रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि जनरल डायर दोबारा इंडिया नहीं आएँगे और उन्हें ब्रिटेन में रहकर ही अपनी सेवाएं प्रदान करनी होगी।
जलियांवाला बाग हत्याकांड के दौरान सरदार उधम सिंह भी वहीं मौजूद थे। उनकी खुशकिस्मती थी कि वे इस हत्याकांड में बच गए थे, इस नरसंघार को देखकर उन्होंने प्रण लिया कि वे इस नरसंघार का बदला जरूर लेंगे।
Jallianwala Bagh Massacre उधमसिंह का बदला
इस हत्याकांड के मुख्य आरोपी जनरल डायर की सन् 1927 में किसी बिमारी के कारण ब्रिटेन में ही मौत हो गई थी, लेकिन दूसरे आरोपी लेफ्टिनेंट माइकल डायर अभी जीवित था उधमसिंह उस समय बच्चे थे लेकिन उनके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क रही थी।
ऊधम सिंह ने गदर पार्टी को जॉइन किया। वे एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे, जिनके सिर पर से माता पिता का साया भी बहुत जल्दी उठ गया था। जब उन्हें पता चला कि माइकल डायर लंदन में हैं तब वे लंदन जाने के लिए पैसे जुटाने लगे। उन्होंने बढ़ई का काम सीखा और फिर अमेरिका गए। अमेरिका के रास्ते से वे लंदन पहुंचे जहाँ उन्होंने होटल में काम किया जिससे वे पिस्तौल खरीद सकें। इन सब काम में उधम सिंह को 21 साल का वक्त लग गया।
सन् 1940 में लंदन के कैक्सटन हॉल में ईस्ट इंडिया असोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी की मीटिंग होनी थी, जिसमें माइकल डायर भी आया हुआ था। उधमसिंह एक पुस्तक के अंदर बंदूक की आकृति के पेज काटकर उसी में बंदूक छिपाकर ले गए थे और जैसे ही माइकल डायर स्टेज पर आए उधम सिंह ने तीन गोलियां उन पर चला दी, इसके बाद में वहाँ से भागे नहीं बल्कि खुद को सरेंडर कर दिया। उधम सिंह ने कहा कि 21 साल बाद जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लिया है और उनका संकल्प पूरा हुआ।
हालांकि इसके बाद 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी दे दी गई। लेकिन यहाँ पर ये बात ध्यान में रखने वाली है कि दोनों डायर, जनरल डायर और लेफ्टिनेंट डायर अलग अलग शख्स थे। दोनों का ही ताल्लुक जलियांवाला बाग हत्याकांड से था। इसलिए लोग उन्हें एक ही शख्स समझ लेते हैं। आज भी इतिहास के पन्नों में सरदार उधम सिंह का नाम स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। जलियांवाला बाग के सभी शहीदों और क्रांतिकारियों को हम शत शत नमन करते हैं। ये थी जलियांवाला बाग हत्याकांड की पूरी सच्चाई।
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Disclaimer
आशा है Jallianwala Bagh Massacre के इस लेख में जलियावाला बाग़ हत्याकांड से जुडी यह जानकारी आपको पसंद आई होगी, यह लेख विभिन्न श्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है जिसमें त्रुटी की संभावना है यदि आपको लगता है कहीं कोई त्रुटी है तो हमें उससे अवगत कराने का कष्ट करें, धन्यवाद
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