Girmitiya Mazdoor: भारत के 36 मजदूरों ने बसा लिया अपना देश - Trends Topic

Girmitiya Mazdoor: भारत के 36 मजदूरों ने बसा लिया अपना देश

Girmitiya Mazdoor

इतिहास की एक ऐसी घटना जिसमें भारत के Girmitiya Mazdoor ने बसा लिया अपना देश और आज करते हैं राज 

Girmitiya Mazdoor

आज हम आपको ऐसे मज़दूरों के बारे में बताने वाले हैं जिन्हें Girmitiya Mazdoor कहा जाता है। यह वही मजदूर हैं जिन्होंने एक वक्त में अंग्रेजों की पूरी दुनिया में अपना अधिकार फैलाने में इनडायरेक्ट तौर पर मदद की। लेकिन एक बार इन्हीं मज़दूरों ने ऐसा किया कि पूरे देश को ही अपना बना लिया और आज वो देश पूरी दुनिया में अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है। जिसका नाम है मॉरिशस। लेकिन क्या आपको पता है कि मॉरिशस पर आज भी इन्हीं मज़दूरों के खानदान का ही राज़ है। 

Girmitiya Mazdoor और ब्रिटिशयर्स

जैसा कि जगजाहिर है, ब्रिटिशयर्स ने एक दौर में दुनिया के बहुत सारे देशों पर अपना कब्जा कर लिया था, जिनमें भारत भी शामिल था। 1751 और 1800 के बीच ब्रिटिश जहाजों ने अटलांटिक महासागर में लगभग 1346 यात्राएं की और यह जंगी या घूमने वाली यात्राएं नहीं थी बल्कि यह बिज़नेस से जुड़ी यात्राएं थी और यह बिज़नेस था इंसानों का। यानी ह्यूमन ट्रेडिंग का। 

Girmitiya Mazdoor
Girmitiya Mazdoor

18 वी शताब्दी में चूँकि ब्रिटेन के कब्जे में और भी देश बढ़े और उन देशों को लूटकर वह समृद्ध होता गया। अब जैसे जैसे ब्रिटेन समृद्ध होता गया । उनके बीच चीनी की मांग बढ़ गई क्योंकि उन्हें चाय और कॉफी का काफी शौक था। उस वक्त कैरिबियन द्वीपों में ज्यादा मात्रा में चीनी उगाई जाती थी। अब वहाँ क्योंकि ब्रिटिश खुद को सबका लीडर समझते थे इसलिए वहाँ काम करने के लिए वो काले या भूरे लोगों को ही सही समझते थे क्योंकि रंगभेद उनके बीच बहुत अहम था। इसीलिए वो अफ्रीका से जहाजों में भरकर लोगों को लाते थे और उन गुलामों से गन्ने की खेती करवातें थे।

साल 1751 से 1807 के बीच लगभग 6 लाख गुलामों को काम करने के लिए ब्रिटिशर्स कॉलोनी में लाया गया था। लेकिन साल 1801 तक ब्रिटेन में दास प्रथा के खिलाफ़ काफी ज़ोर शोर से प्रदर्शन होने लगा। ज़ाहिर है कुछ लोगों में अभी भी इंसानियत बची थी, जिसके नतीजे में साल 1807 में ब्रिटेन ने ट्रेड ऐक्ट पास किया। 

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इस ऐक्ट के पास होने के बाद दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में ब्रिटिश रॉयल नेवी सर्च किया करती थी कि कोई भी जहाज ह्यूमन ट्रेडिग ना कर पाए। अब आप सोच रहे होंगे कि इस ऐक्ट के कारण गुलामों की ट्रेनिंग में बहुत सुधार आया होगा। लेकिन इस ऐक्ट के आने के बाद गुलामों को और जुल्म झेलने पड़े। दरअसल, नियम यह थे कि कोई भी जहाज स्लेव ट्रेड नहीं कर सकता और अगर किसी भी जहाज़ पर गुलाम पाए गए तो 100 पाउन्ड पर स्लैब के हिसाब से फाइन लगना था। 

अब इस वजह से ट्रेडर्स गुलामों को छुपाकर ले जाते थे और अगर कहीं उन्हें ब्रिटिश रॉयल नेवी दिख जाती तो वो गुलामों को पानी में फेंक देते थे ताकि उन पर कोई जुर्माना ना लगे। जिस वजह से उनकी स्थिति बद से बदतर होती गई। इन सबके दौरान गुलामों की स्मगलिंग काफी बढ़ी कालाबाजारी बढ़ी और गुलामों की कीमत भी काफी बढ़ गई। अब ट्रेड और भी मुनाफ़े का काम हो गया था।

क्योंकि उस समय हिंद महासागर में मॉरिशस ट्रेनिंग का इम्पोर्टेन्ट पोर्ट था तो यहीं से होकर सारे जहाज गुजरते थे और गुलामों से भरे जहाज भी इसी पोर्ट से होकर गुजरते थे। क्योंकि ब्रिटिश फ़्रेंच वॉर के बाद साल 1814 में ब्रिटिश ने मॉरिशस पर कब्जा कर लिया था और स्लेव ट्रेड ऐक्ट के तहत स्लेव ट्रेनिंग वाले जहाजों को यहाँ भी बंद किया गया था। 

अब ये एक्ट इतना स्ट्रॉन्ग हो चुका था। इसीलिए इस ट्रेनिंग से इतनी कमाई नहीं होती थी और जितने मजदूर कैरेबिया में थे। उनसे जम कर काम लिया गया। शुगर के उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी होती गई। 1820 तक कैरेबिया में लगभग 11,000 टन चीनी और 1820 के बाद लगभग 21,000 टन चीनी का उत्पादन हुआ। इसके बाद आया साल 1833 जब एक और ऐक्ट पास हुआ जिसका नाम था स्लेवरी एव्युलुशन ऐक्ट। 

अब इस ऐक्ट के तहत गुलामों की ट्रेनिंग पूरी तरह बंद हो गई और चीनी का प्रोडक्शन लगातार गिरने लगा और इससे फायदा हुआ मॉरिशस को, क्योंकि मॉरिशस ट्रेनिंग पोर्ट था। इसीलिए इसे चीनी का सबसे बड़ा पोर्ट बना दिया गया। क्योंकि दास प्रथा पूरी तरह से खत्म हो चुकी थी और लेबर सप्लाई भी बंद हो चुकी थी तो ब्रिटिशर्स को कोई नया तरीका तो निकालना ही था ताकि उनका काम सरलता से चलता रहे।

इसीलिए उन्होंने एक नया तरीका निकाला और इसका नाम रखा ग्रेट एक्सपेरिमेंट। बेशक वो गरीबों पर एक्सपेरिमेंट भी कर रहे थे क्योंकि 18 वीं शताब्दी के आखिर तक लगभग पूरे भारत में ब्रिटिशर्स का कब्जा हो चुका था और हम रियासतों की लड़ाई के बीच पिस रहे थे। इन लड़ाइयों की वजह से भुखमरी और अकाल बढ़ता गया। 18 वीं सदी के आखिर में भारत में सबसे भयानक अकाल आया जिसमें लगभग 3 करोड़ लोगों की मौत हुई।

अब गरीब भारतीय एक एक दाने को तरसने लगे और अकाल की वजह से कर्ज के नीचे दब गए। इसका फायदा ब्रिटिशर्स ने उठाया था। ब्रिटिशर्स जानते थे कि उन्हें आगे क्या करना है। उन्होंने नौकरी का झांसा देकर करीब भारतीय मज़दूरों को एक एग्रीमेंट के बारे में बताया जिसमें उन्हें 5 साल मॉरिशस में रहकर काम करना था।

अब इस काम के लिए बहुत से भारतीय बस इसी लिए तैयार हुए क्योंकि उनका मानना था कि आखिर उनके खाने का जुगाड़ हो जायेगा और कुछ भारतीय इतने ज्यादा कर्ज से लदे थे कि उन्हें कर्ज चुकाने के लिए इस काम पर जाना पड़ा।

Girmitiya Mazdoor के मोरिशस पहुँचने की कहानी 

जैसे बहुत से शब्द घिस पिट कर कोई दूसरे शब्द बन जाते हैं, उसी तरह एग्रीमेंट शब्द भारतीयों के बीच, और यहीं से पैदा हुआ Girmitiya Mazdoor जैसा शब्द, अब जिन मज़दूरों ने यह एग्रीमेंट साइन किया उन्हें Girmitiya Mazdoor के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि पानी के रास्ते जहाज पर इन्हें मॉरिशस ले जाया जाता था।

इसलिए इनका जहाज ही गिरमिटिया के नाम से जाना जाने लगा। पहली बार जिस जहाज में 36 भारतीय मजदूर मॉरिशस ले जाए गए। उस जहाज का नाम था एटलस और जिस अंग्रेज ने यह एग्रीमेंट साइन करवाया था उसका नाम था जॉर्ज चार्ल्स।

ये सारे 36 Girmitiya Mazdoor, जिन्हें 10 सितंबर 1834 को कोलकाता से मॉरिशस ले जाया गया, वो मूल बिहार के थे और कोलकाता में रहकर मजदूरी करते थे। मजदूरी देने की बात करें तो हर आदमी को 5 रु. मजदूरी और औरत को 4 रु. मजदूरी दी जाने की बात कही गई थी।

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यह Girmitiya Mazdoor से भरा जहाज 2 नवंबर 1834 को मॉरिशस पहुँच गया और 36 भारतीय Girmitiya Mazdoor ने इंटोनेट नाम की शुगर फैक्टरी में काम करना शुरू कर दिया। जिस घाट पर इन्हें उतारा गया। उसे आज अप्रवासी घाट के नाम से जाना जाता है और आज इसे एक वर्ल्ड हेरिटेज साइट बना दिया गया है।

हर साल 2 नवंबर मॉरिशस में अप्रवासी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। आपको बता दें कि 1834 से लेकर 1910 के बीच लगभग 4,51,740 Girmitiya Mazdoor भारत से मॉरीशस लाए गए थे। अब आप सोच रहे होंगे कि चलो अच्छा है। गरीबों को खाने और काम करने के लिए कुछ तो मिला लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं था। Girmitiya Mazdoor की हालत इतनी दयनीय होती थी कि उन्हें अमानवीय स्थितियों में रहकर काम करना पड़ता था और क्योंकि इन पर पूरी तरह से अंग्रेजों का कंट्रोल होता था इसलिए इन्हें इनकी मजदूरी तक समय पर नहीं दी जाती थी। 

जैसा कि एग्रीमेंट में लिखा हुआ था। कि 5 साल बाद इन Girmitiya Mazdoor को वापस जाने की आज़ादी थी लेकिन असल में ऐसा बिल्कुल नहीं था क्योंकि वापस जाने का एक ही रास्ता था वो भी जहाजी रास्ता और उस पर भी अंग्रेज़ों का कंट्रोल था, और 5 साल बाद घर वापसी इस एग्रीमेंट का हिस्सा सिर्फ साल 1860 तक ही रहा और साल 1860 के बाद इस वापस जाने वाले नियम को एग्रीमेंट से हटा दिया गया।

साल 1860 आते आते दुनिया के बाकी देशों में चीनी का प्रोडक्शन काफी बढ़ गया, जिसके साथ ही साल 1878 में लेबर लॉ पास किया गया। इस कानून के आने के बाद ही Girmitiya Mazdoor को उनकी पेमेंट वक्त पर दिए जाने का नियम बना

अब आते हैं 19 वीं सदी में जब मॉरिशस में चीनी की मांग पूरी तरह से कम हो गई क्योंकि पूरी दुनिया में चीनी का प्रॉडक्शन शुरू हो गया था, इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन आ गया था, लोग अपने हक के लिए लड़ने लगे थे और आगे साल 1917 में हुए आंदोलन के चलते मॉरिशस में काम करने वाले मज़दूरों को घर वापस जाने की इजाजत मिल गई। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। साल 1917 के आते आते तक मॉरिशस में रुके मज़दूरों की लगभग तीन तीन पीढ़ियां उस जमीन में पैदा हो चुकी थी और अब यह उन्हें अपनी जन्मभूमि लगने लगी थी इसलिए ज्यादातर मज़दूरों ने वहीं रुकना सही समझा।

और क्योंकि अब एग्रीमेंट जैसी कोई चीज़ नहीं रह गई थी, इसलिए उन्होंने वही जमीन खरीद ली और अपना जीवन बिताने लगे। हैरान करने वाली बात यह है कि साल 1931 में मॉरिशस की 68% आबादी भारतीय थी और इससे भी बड़ी बात यह है कि उस भारतीय आबादी का 90% हिस्सा वही पैदा हुआ और पला बढ़ा था और मॉरिशस में हमेशा से ही इन्हीं भारतीय लोगों का राज़ रहा है। यहाँ तक कि वहाँ की करंसी भी रुपया है और वहाँ के प्रधानमंत्री भी भारतीय होने के साथ साथ उनके पूर्वजों के बारे में यह जानकारी है कि वह भी बिहारी मजदूर के तौर पर ही मॉरिशस आये थे।

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Disclaimer

आशा है इतिहास में आलेखित Girmitiya Mazdoor की ये कहानी आपको पसंद आयी होगी, यह लेख विभिन्न श्रितों से प्राप्त जानकारी के आधार पर केवल ज्ञानवर्धन के उद्देश्य से लिखा गया है 

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